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आखिर क्यों अंग्रेजों ने भगत सिंह और उनके साथियों को एक दिन पहले ही फांसी देकर अपने ही बनाए कानूनों को तोड़ा?

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भारत के इतिहास में 23 मार्च एक ऐसा दिन है, जिसे कोई भी देशप्रेमी भुला नहीं सकता। यह वह दिन था, जब भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने भारत माता की आज़ादी के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। हालांकि, एक सवाल जो इतिहास के पन्नों में दर्ज है, जब 24 मार्च को फांसी की तारीख तय थी, तो 11 घंटे पहले ही इन क्रांतिकारियों को फांसी क्यों दे दी गई?

विद्रोह की आशंका से डरे थे अंग्रेज

ब्रिटिश हुकूमत पहले ही इन तीनों क्रांतिकारियों की लोकप्रियता से घबराई हुई थी। ब्रिटिश को इस बात का डर था कि अगर भगत सिंह और उनके साथियों को 24 मार्च की सुबह फांसी दी जाती, तो पूरे देश में जबरदस्त जनाक्रोश भड़क सकता था। भगत सिंह उस दौर के सबसे बड़े क्रांतिकारी बन चुके थे और उनकी लोकप्रियता दिन-ब-दिन बढ़ रही थी। पूरे देश में उनका समर्थन करने वाले लाखों लोग सड़कों पर उतर सकते थे। ब्रिटिश सरकार को अंदेशा था कि जेल के बाहर भगत सिंह की रिहाई की मांग को लेकर हजारों की भीड़ जमा हो सकती है, जो हिंसक विद्रोह का रूप ले सकती थी।

देशभर में भगत सिंह को समर्थन मिल रहा था। जनता उन्हें एक महानायक के रूप में देख रही थी। जॉन सॉन्डर्स की हत्या के मामले में जब इन तीनों को फांसी की सजा सुनाई गई, तब भी देशभर में विरोध प्रदर्शन हुए। सरकार को अंदेशा था कि यदि तय तारीख 24 मार्च की सुबह फांसी दी जाती, तो यह विरोध और भड़क सकता था। इसी डर के चलते 22 मार्च की रात तक अंग्रेजी हुकूमत ने सारी तैयारियां पूरी कर ली थी। इसके पीछे का मकसद ऐसा था कि तीनों क्रांतिकारियों को फांसी दिए जाने के तय दिन कोई हंगामा न हो जाए। अंग्रेजी हुकूमत देश भर में उठ रहे विरोध के स्वर और प्रदर्शन से डरी हुई थी। अंग्रेज इस बात तय दिन फांसी दिए जाने पर कोई हंगामा न हो। हालांकि, सजा पर अमल किये जाने वाली यह रातें पूरे देश के लिए उनींदीं रातें थी। जबकि दूसरी तरफ भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को किसी तरह की चिंता नहीं थी।

1928 में लाहौर में अंग्रेज पुलिस अधिकारी जॉन सॉन्डर्स की हत्या हुई। इस मामले में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को दोषी ठहराते हुए फांसी की सजा मिली। तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन ने मुकदमे की सुनवाई के लिए विशेष ट्रिब्यूनल बनाया। अंततः 23 मार्च 1931 को लाहौर सेंट्रल जेल में तीनों क्रांतिकारियों को फांसी दे दी गई।

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अपने ही बनाए कानून को तोड़ा अंग्रेजों ने?

भगत सिंह को केंद्रीय असेंबली में बम फेंकने के मामले में फांसी की सजा सुनाई गई थी, जिसकी तारीख 24 मार्च तय थी। लेकिन देशभर में इस सजा का भारी विरोध हुआ, जिससे अंग्रेजी हुकूमत डर गई। ब्रिटिश सरकार को आशंका थी कि तय समय पर फांसी देने से विद्रोह भड़क सकता है, इसलिए 23 मार्च 1931 की शाम 7:33 बजे, लाहौर सेंट्रल जेल में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी के तख्ते पर चढ़ाया गया।

ब्रिटिश कानून के अनुसार, किसी भी कैदी को फांसी सुबह दी जाती थी, लेकिन भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को शाम को ही फांसी पर लटका दिया गया। इतना ही नहीं, आमतौर पर फांसी से पहले परिजनों को आखिरी मुलाकात का मौका दिया जाता था, लेकिन इन क्रांतिकारियों के साथ ऐसा नहीं हुआ। सरकार ने बेहद गोपनीय तरीके से इस फैसले को लागू किया और नियत समय से पहले ही फांसी दे दी। कैदियों को अचानक अपनी-अपनी कोठरी में बंद कर दिया गया। जब बाकी कैदियों ने इसका कारण पूछा, तो जेल अधिकारियों ने बताया कि यह ‘ऊपर से आदेश’ आया है। कुछ ही देर बाद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी गई।

परिजनों से नहीं मिलने दिया, अंतिम संस्कार भी चोरी-छिपे

आमतौर पर फांसी से पहले परिवारवालों को अंतिम मुलाकात का अवसर दिया जाता था, लेकिन इन तीनों के साथ ऐसा नहीं हुआ। सरकार ने बेहद गोपनीय तरीके से फैसले को लागू किया और शवों को भी परिजनों को नहीं सौंपा। रात के अंधेरे में फिरोजपुर के पास सतलुज नदी के किनारे उनके शवों को जलाने का प्रयास किया गया, लेकिन गांव वालों को इसकी भनक लग गई। वे वहां पहुंचे और अधजले शवों को पूरे सम्मान के साथ अंतिम संस्कार के लिए ले गए।

अंग्रेजों के लिए चुनौती बने थे भगत सिंह

भगत सिंह और उनके साथी जेल में भी क्रांतिकारी गतिविधियों से पीछे नहीं हटे थे। उन्होंने जेल में भूख हड़ताल कर ब्रिटिश हुकूमत को हिला दिया। जेल में रहते हुए भी उन्होंने क्रांति, समाजवाद और स्वतंत्रता पर कई लेख लिखे, जो युवाओं के बीच तेजी से लोकप्रिय हो रहे थे। अंग्रेज सरकार को डर था कि अगर भगत सिंह ज्यादा समय तक जिंदा रहे, तो ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने का आंदोलन और मजबूत हो जाएगा।

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