झारखंड की आदिवासी संस्कृति और सभ्यता को संरक्षित और पुनर्जीवित करने में डा. रामदयाल मुंडा के योगदान को कभी भी भूलाया नहीं जा सकता है। वे न केवल झारखंड के सांस्कृतिक और सामाजिक पुनर्जागरण के प्रतीक थे, बल्कि एक शिक्षाविद, चिंतक, और समाज सुधारक भी थे। उनकी सोच और उनके द्वारा किए गए कार्यों ने झारखंड में न केवल सांस्कृतिक जागरूकता का संचार किया, बल्कि झारखंड आंदोलन को भी नई दिशा और मजबूती दी।
संस्कृति के संरक्षक और पुनर्जागरण की शुरुआत
1980 के दशक में जब डा. रामदयाल मुंडा अमेरिका से लौटे, तो उन्होंने झारखंड के आदिवासी समाज में संस्कृति और अस्मिता को पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया। इससे पहले अमेरिका में उन्होंने आदिवासी जीवन और संस्कृति का गहन अध्ययन किया था, इसलिए वे अपने सारे करियर को पीछे छोड़कर वे अमेरिका से रांची लौट आए। यहां वे रांची विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय और जनजातीय भाषा विभाग के विभागाध्यक्ष बने।
उन्होंने न केवल एक अकादमिक विशेषज्ञ के रूप में अपनी भूमिका निभाई, बल्कि झारखंड की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को पुनर्जीवित करने के लिए लंबे समय तक प्रयास किए। अमेरिका से लौटने के बाद, विश्वविद्यालय के निकट ही वे एक आदिवासी महिला की जमीन पर अमेरिका से लाए टेंट को लगा कर रहना शुरू कर दिया, वह जमीन मुंडा को विश्वविद्यालय में ही काम करने वाली एक महिला ने दी। अमेरिका से लौटने के बाद यहां एक टेंट में सादगी पूर्ण जीवन जीते देख सभी दंग थे। उनका पूरा जीवन सादगीपूर्ण और अपनी संस्कृति के प्रति समर्पण का प्रतीक रहा। उन्होंने “अखाड़ा” नृत्य, नगाड़ा, बांसुरी, और संगीत जैसे पारंपरिक कला रूपों को बढ़ावा दिया।
डा. मुंडा ने महसूस किया कि झारखंड की आत्मा ‘करमा’ और ‘सरहुल’ पर्व जैसे पारंपरिक त्योहारों में निहित है। इन त्योहारों को संरक्षित करने के लिए उन्होंने करमा और शाल वृक्षों को प्रतीकात्मक रूप से विश्वविद्यालय और ओपन स्पेस थिएटर परिसर में लगाया। उन्होंने न केवल आदिवासी नृत्य और संगीत को पुनर्जीवित किया, बल्कि इसे समाज के सभी वर्गों तक पहुंचाने का प्रयास किया। उनके इन प्रयासों ने झारखंड की सांस्कृतिक पहचान को एक नई दिशा दी।
आदिवासी भाषा और साहित्य का संरक्षण व प्रचार
रामदयाल मुंडा ने झारखंडी भाषाओं और साहित्य को संरक्षित और प्रचारित करने में अभूतपूर्व योगदान दिया। उस समय आदिवासी भाषाओं को केवल एक बोली माना जाता था। उन्होंने यह साबित किया कि ये भाषाएं न केवल संवाद का माध्यम हैं, बल्कि इनमें झारखंड की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर भी समाहित है।
उन्होंने मातृभाषा में शिक्षा की वकालत की और इसके लिए झारखंडी भाषाओं में पाठ्यक्रम तैयार करवाए। उनका मानना था कि भाषा किसी भी संस्कृति की रीढ़ होती है। उन्होंने झारखंड की भाषाओं के महत्व को समझाने के लिए एक चार पन्नों का लेख लिखा, जो विश्व में प्रसिद्ध हुआ। इसके अलावा, उन्होंने “फ्राइडे अखाड़ा” की शुरुआत की। यह एक ऐसा मंच था, जहां बौद्धिक चर्चा और सांस्कृतिक गतिविधियों का आयोजन होता था। इस मंच पर झारखंड और अन्य क्षेत्रों के विद्वानों ने आदिवासी समाज की समस्याओं, उनकी संस्कृति, और उनके विकास पर चर्चा किया करते। उन्होंने नागपुरी गानों का रिकार्ड तैयार करवाया, जिससे झारखंड की पारंपरिक संगीत धरोहर को संरक्षित किया जा सके।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी अस्मिता की पहचान
डा. रामदयाल मुंडा ने झारखंड की संस्कृति और आदिवासी सभ्यता को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। 1981 में विश्व आदिवासी संस्कृति दिवस की शुरुआत उनके प्रयासों का ही परिणाम थी। उन्होंने अमेरिका और यूरोप में झारखंड की संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया और वहां के प्रोफेसरों और शोधकर्ताओं को झारखंड की सांस्कृतिक और सामाजिक संरचना का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के “यूनाइटेड नेशन डिक्लेरेशन ऑन इंडिजिनस राइट्स” (UNDRIP) में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर झारखंड के आदिवासियों की अस्मिता, अधिकार, और संस्कृति को बचाने के लिए आवाज उठाई। उनका मानना था कि आदिवासियों की अस्मिता को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिलनी चाहिए।
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डा. रामदयाल मुंडा का योगदान केवल सांस्कृतिक पुनर्जागरण तक सीमित नहीं था। उन्होंने झारखंड आंदोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने झारखंड राज्य के निर्माण के लिए सांस्कृतिक आंदोलन और राजनीतिक आंदोलन को एक साथ जोड़ा।
1990 के दशक में, जब राजीव गांधी खूंटी में एक रैली के लिए आ रहे थे तो मुंडा ने इसका बहिष्कार किया, और झारखंड की संस्कृति, सभ्यता को एक पहचान दिलाने की बात कही। इसके लिए रामदयाल मुंडा ने पारंपरिक धोती और नगाड़ा पहनकर झारखंड की संस्कृति का प्रतिनिधित्व किया। इस प्रतीकात्मक कदम ने राजीव गांधी को झारखंड आंदोलन की गहराई और आदिवासी अस्मिता के महत्व को समझने पर मजबूर कर दिया। उस समय रामदयाल मुंडा रांची विश्वविद्यालय के कुलपति थे, राजीव गांधी ने उन्हें इस तरह से देखकर काफी अचंभित हुए थे कि आखिर एक पढ़ा लिखा व्यक्ति जो दुनियाभर में प्रसिद्ध है, वो झारखंड के गांवों में झारखंड की संस्कृति और सभ्यता को बचाने की लड़ाई लड़ रहा है।
उन्होंने झारखंड आंदोलन को एक नई दिशा दी, जहां उन्होंने सांस्कृतिक और सामाजिक जागरूकता के माध्यम से आंदोलन को मजबूत किया। 2000 में, जब झारखंड राज्य का गठन हुआ, तो इसमें डा. रामदयाल मुंडा के योगदान को किसी भी तरह से कम नहीं किया जा सकता।
सांस्कृतिक पुनरुत्थान और उसके प्रभाव
डा. रामदयाल मुंडा के प्रयासों ने झारखंड में सांस्कृतिक पुनर्जागरण की नींव रखी। उनके कार्यों ने झारखंड के आदिवासियों को अपनी संस्कृति और परंपराओं पर गर्व करने का अवसर दिया। उन्होंने न केवल झारखंड की संस्कृति को पुनर्जीवित किया, बल्कि इसे वैश्विक स्तर पर भी पहचान दिलाई। उनके प्रयासों से झारखंड के आदिवासियों को उनकी अस्मिता और पहचान को लेकर जागरूकता आई। उनके कार्यों ने झारखंड की संस्कृति, भाषा, और परंपराओं को संरक्षित और प्रचारित करने का मार्ग प्रशस्त किया।
रामदयाल मुंडा का जीवन और उनके कार्य झारखंड के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं। उन्होंने यह साबित कर दिया कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण केवल एक समुदाय की पहचान का विषय नहीं है, बल्कि यह पूरे समाज के विकास का मार्गदर्शक भी हो सकता है। झारखंड और भारत के आदिवासी समाज के लिए उनका योगदान अमूल्य है। उनके विचार और उनके कार्य झारखंड के सांस्कृतिक पुनर्जागरण और झारखंड आंदोलन के इतिहास में सदैव अमर रहेंगे। इनका योगदान झारखंड की संस्कृति, भाषा और आदिवासी अस्मिता के लिए एक मील का पत्थर है। उनके प्रयासों ने झारखंड के आदिवासियों को न केवल अपनी परंपराओं और पहचान को संरक्षित करने की प्रेरणा दी, बल्कि इसे आगे बढ़ाने का मार्ग भी दिखाया।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी अस्मिता के नायक रामदयाल मुंडा की कहानी, संजय बासु मलिक की जुबानी।