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दो साल, 250 से अधिक मौतें, 7000 परिवार बेघर; जानिए क्यों नहीं थम रही मणिपुर में हिंसा?

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3 मई, 2023 यह तारीख मणिपुर के इतिहास में एक दर्दनाक मोड़ के तौर पर दर्ज हो गई है। दो साल पहले आज ही के दिन कुकी और मैतई समुदाय के बीच शुरू हुई जातीय हिंसा ने धीरे-धीरे पूरे राज्य को हिंसा की चपेट में धकेल दिया। उस दिन शायद ही किसी ने सोचा होगा कि यह संकट दो साल बाद भी अपनी पूरी तीव्रता के साथ बना रहेगा। आज, जब इस हिंसा को दो साल पूरे हो चुके हैं, मणिपुर की तस्वीर कुछ ज्यादा बदली नहीं है—बल्कि और भयावह हो गई है। राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया है। इन सब के बीच न्यूज़ एजेंसी राउटर्स के अनुसार, करीब 7000 से अधिक परिवार अपने ही राज्य में घर से बेघर हो गए हैं, राहत शिविरों में जी रहे हैं और अपने घर लौटने की उम्मीद में हर दिन हालात के सामान्य होने का इंतजार कर रहे हैं।

यह संकट सिर्फ सामाजिक नहीं, बल्कि राजनीतिक, प्रशासनिक और मानवीय संवेदनाओं की विफलता का भी प्रतीक बन चुका है। इंटरनेट बंदी, स्कूल-कॉलेज बंद, राहत शिविरों में रहने को मजबूर हजारों लोग और असुरक्षित माहौल यह बताता है कि हालात सामान्य होने से अभी भी बहुत दूर हैं। केंद्र और राज्य सरकारें समाधान का भरोसा दिलाती रहीं, लेकिन जमीनी हकीकत में कोई स्थायी सुधार नहीं हो सका है। राज्य में राष्ट्रपति शासन लगे हुए भी दो माह बीत चुके हैं। आखिर क्यों नहीं थम रही है मणिपुर की आग? किन कारणों ने इस हिंसा को इतने लंबे समय तक खींचा आइय हम जानते हैं…

हिंसा की शुरुआत कैसे हुई?

मणिपुर में हिंसा की शुरुआत एक आदिवासी छात्र संगठन द्वारा 3 मई 2023 को आयोजित ‘आदिवासी एकता मार्च’ के बाद हुई। यह मार्च मणिपुर हाईकोर्ट के उस आदेश के खिलाफ निकाला गया था जिसमें मैतई समुदाय को अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा देने की सिफारिश की गई थी। राज्य की कुल आबादी में लगभग 53% हिस्सेदारी रखने वाले मैतई समुदाय ने लंबे समय से इस दर्जे की मांग की थी, जबकि कुकी और नागा जैसे आदिवासी समुदायों को आशंका थी कि इससे उनके अधिकार, जमीन और नौकरियों में आरक्षण पर खतरा मंडराने लगेगा।

इससे कुछ दिन पहले ही मणिपुर में एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें कुकी समुदाय की दो महिलाओं को मैतेई समुदाय के पुरुषों ने नग्न अवस्था में परेड करवाई थी। इस घटना ने हाईकोर्ट के इस आदेश के बाद दोनों समुदायों को उकसाने का काम किया।

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हाईकोर्ट के आदेश के बाद से मणिपुर में तनाव तब और बढ़ गया जब कुकी समुदाय ने मैतेई समुदाय की आधिकारिक जनजातीय दर्जा दिए जाने की मांग का विरोध करना शुरू कर दिया। दोनों समुदायों में हिंसक झड़प हुई। इसे लेकर कुकियों ने तर्क दिया कि इससे सरकार और समाज पर उनका प्रभाव और अधिक मजबूत होगा, जिससे उन्हें जमीन खरीदने या मुख्य रूप से कुकी क्षेत्रों में बसने की अनुमति मिल जाएगी। कुकियों का कहना है कि मैतेई के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा छेड़ा गया नशीली दवाओं के खिलाफ युद्ध उनके समुदाय को उखाड़ने का एक बहाना है। इसे म्यांमार से हो रहे अवैध प्रवासन ने तनाव को और बढ़ाने का काम किया और देखते ही देखते यह जातीय संघर्ष में तब्दील हो गया। इंफाल घाटी और आसपास के पर्वतीय इलाकों में हिंसा भड़क उठी। गांव जलाए गए, हजारों परिवार विस्थापित हुए और दर्जनों जानें गईं।

हिंसा की वजह क्या?

इस संघर्ष की जड़ें सिर्फ आरक्षण विवाद में नहीं हैं। मणिपुर में एक विशेष कानून है, जो आदिवासी समुदायों के लिए कुछ विशेष प्रावधानों को सुनिश्चित करता है। इस कानून के तहत केवल आदिवासी ही पहाड़ी क्षेत्रों में बस सकते हैं। चूंकि मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त नहीं है, इसलिए उन्हें इन पहाड़ी इलाकों में बसने की अनुमति नहीं है। वहीं, नागा और कुकी जैसे आदिवासी समुदाय घाटी क्षेत्रों में जाकर रह सकते हैं। और राज्य की जमीन का लगभग 90% हिस्सा पहाड़ी है, लेकिन उस पर सिर्फ आदिवासी समुदायों का अधिकार है। मैतई समुदाय का आरोप है कि उनके पास रहने के लिए सीमित ज़मीन है जबकि कुकी समुदाय पर वे अवैध बांग्लादेशी और म्यांमार से आए प्रवासियों को बसाने का आरोप लगाते हैं। अब नागा-कुकी समुदाय को यह आशंका है कि यदि मैतेई समुदाय को भी जनजाति का दर्जा मिल गया, तो वे भी पहाड़ी इलाकों में बसने के कानूनी हकदार हो जाएंगे। इससे उन्हें अपनी जमीनें छिन जाने का डर है।

सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के बाद सीएम ने दिया इस्तीफा

हिंसाग्रस्त मणिपुर की बीजेपी शासित एन बीरेन सरकार लंबे समय से विरोध का सामना कर रही थी। विरोध के स्वर भाजपा के अंदर से भी उठने लगे थे। क्योंकि सरकार में लगभग 60 प्रतिशत विधायक भाजपा से हैं। राज्य में हिंसा और तनाव के बाद बीजेपी के विधायक भी केंद्रीय नेतृत्व से मुख्यमंत्री बदलने की मांग कर रहे थे। कांग्रेस ने विधानसभा सत्र में बीरेन सिंह सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की भी धमकी दी थी। करीब 21 महीने से मणिपुर जातीय हिंसा का दंश झेल रहा था। इसके चलते अब तक करीब 250 से अधिक लोगों की मौतें हुई और हजारों लोगों को मजबूरन विस्थापित होना पड़ा।

तेजी से बढ़ रहे विरोध के स्वर ने सरकार को इस्तीफा देने के लिए बाध्य कर दिया। बता दें 9 फरवरी को मुख्यमंत्री बीरेन सिंह की नई दिल्ली में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के साथ मीटिंग थी। इसके बाद उन्होंने इंफाल लौटकर राज्यपाल अजय भल्ला को इस्तीफा दे दिया। गर्वनर ने इस्तीफा स्वीकारने के बाद 10 फरवरी को बजट सत्र बुलाने के आदेश को अमान्य और शून्य घोषित कर दिया। इसके चलते विधानसभा सत्र को रद्द कर दिया गया और राज्य में फिर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया।

राष्ट्रपति शासन के बाद क्या है स्थिति?

दो साल बीतने के बाद भी मणिपुर में हालात सामान्य नहीं हुए हैं। राहत शिविरों में रह रहे लोग अब मानसिक और सामाजिक दोनों ही रूप से थक चुके हैं। हजारों बच्चों की शिक्षा प्रभावित हुई है। कई गांव अब भी वीरान हैं। इंफाल घाटी और चूराचांदपुर जैसे इलाकों में तनाव बना हुआ है। कई क्षेत्रों में इंटरनेट सेवाएं महीनों बंद रही थीं, जिससे संवाद और सूचना का संकट गहरा गया। दोनों समुदायों के बीच अविश्वास इतना गहरा हो गया है कि बातचीत ठोस नतीजों तक नहीं पहुंच पा रहा है और हालात में कोई खास बदलाव होता  नजर नहीं आ रहा है।

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