भागलपुर जिले के पीरपैंती में प्रस्तावित थर्मल पावर परियोजना अब बिहार में राजनीतिक और पर्यावरणीय बहस का केंद्र बन गई है। 13 सितंबर को विद्युत भवन में बिहार स्टेट पावर जेनरेशन कंपनी लिमिटेड (BSPGCL) और अडानी पावर लिमिटेड के बीच दीर्घकालिक बिजली आपूर्ति को लेकर एकरारनामा (MoU) पर हस्ताक्षर किए गए। परियोजना को राज्य सरकार ऊर्जा संकट से निपटने का बड़ा कदम बता रही है, जबकि विपक्ष इसे कॉरपोरेट हितों की रक्षा और पर्यावरण की अनदेखी व बिहार के लोगों की जमीनें जबरदस्ती लिखवाकर या औने-पौने दाम देकर लिया गया है।
क्या है यह परियोजना?
भागलपुर के पीरपैंती में लगभग 30,000 करोड़ रुपये की लागत से 2,400 मेगावाट क्षमता का ताप विद्युत संयंत्र स्थापित किया जा रहा है। सरकार ने इसकी स्थापना के लिए 1,050 एकड़ भूमि को 33 वर्षों के लिए मात्र 1 रुपये प्रति वर्ष की दर पर अडानी पावर लिमिटेड को लीज पर दिया गया है। परियोजना की निविदा प्रक्रिया फरवरी 2025 में शुरू हुई थी, जब बिहार कैबिनेट ने BSPGCL को नोडल एजेंसी नियुक्त किया।
परियोजना के लिए काटे जाएंगे 10 लाख पेड़
पीरपैंती के लोगों का कहना है कि जहां चारों ओर परियोजना के आर्थिक लाभों की चर्चा हो रही है, वहीं क्षेत्र के लोग इस प्रोजेक्ट को लेकर बता रहे हैं कि इससे पर्यावरण पर भी प्रभाव पड़ेगा। लोगों का कहना है कि इस परियोजना के लिए लगभग 10 लाख पेड़ काटे जा सकते हैं। जिसमें सबसे अधिक आम के पेड़, लीची, सागवान व अन्य पेड़ हैं। बता दें पीरपैंती का यह क्षेत्र न सिर्फ हरियाली से भरपूर है, बल्कि कई छोटे जीव, पक्षी और वनस्पतियों का प्राकृतिक आवास भी है।
ताप विद्युत संयंत्र से निकलने वाले धुएं और राख से वायु प्रदूषण बढ़ेगा, जिससे आसपास रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य पर खतरा बढ़ सकता है। इसके अलावा संयंत्र संचालन में भारी मात्रा में पानी की जरूरत होगी, जिससे स्थानीय जल स्रोतों पर दबाव बढ़ेगा और खेती प्रभावित हो सकती है।
परियोजना को लेकर भूमि अधिग्रहण से प्रभावित होने वाले किसानों और ग्रामीणों में गहरी चिंता है। कई ग्रामीण खेती और पशुपालन पर निर्भर हैं, और उनकी आजीविका पर संकट मंडरा रहा है। स्थानीय युवाओं में एक वर्ग इसे रोजगार के अवसरों का रास्ता मान रहा है, वहीं बड़े हिस्से में असंतोष है।
‘राष्ट्र सेठ’ को लाभ, जनता को नुकसान : खेड़ा
अडानी प्रोजेक्ट को लेकर कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने सरकार और अडानी समूह पर हमला बोला है। कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने कहा,
“बिहार में भागलपुर के पीरपैंती में राष्ट्र सेठ गौतम अडानी को बिजली संयंत्र लगाने के लिए 1 रुपये प्रति वर्ष के हिसाब से 33 साल के लिए 1,050 एकड़ जमीन दी गई है। साथ ही 10 लाख पेड़ काटे जा रहे हैं। यह सब चुनाव से पहले जनता की आवाज़ दबाने के लिए किया जा रहा है। ग्रामीणों को नजरबंद कर दिया गया है ताकि वे विरोध न कर सकें। जब भी बीजेपी को लगता है कि चुनाव हार सकती है, वह बड़े उद्योगपतियों के हाथों गिफ्ट देती है।”
पवन खेड़ा ने इसे न सिर्फ पर्यावरण के साथ खिलवाड़ बताया, बल्कि लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन करार दिया।
जबरन ली गई जमीन, मुआवजे में भी गड़बड़ी
वहीं, ग्रामीणों का आरोप है कि परियोजना से जुड़ी पूरी जानकारी उन्हें नहीं दी गई है, न ही उनकी राय ली गई है। ग्रामीणों से स्पष्ट तौर पर ऐसे किसी भी प्रोजेक्ट को लेकर जमीन नहीं ली गई। साथ ही, उनका यह भी कहना है कि हमने कागजात पर पेंसिल से साइन किया था जिसे बाद में मिटाकर कलम से साइन कर लिया गया। वहीं कुछ ग्रामीण का यह भी आरोप है कि हमसे जमीनें जबरदस्ती छीनी जा रही है, हमें इसका सही तरीके से मुआवजा भी नहीं दिया गया। वहीं किसी का यह भी कहना है कि समान जमीन के लिए किसी को अधिक मुआवजा तो किसी को कम मुआवजा मिला है।
सरकार का पक्ष
सरकार का कहना है कि इस परियोजना का उद्देश्य बिहार में बिजली की कमी को दूर करना, औद्योगिक विकास को बढ़ावा देना और रोजगार के अवसर पैदा करना है। वहीं, राज्य सरकार के अधिकारियों का कहना है कि बिहार में बिजली की मांग तेजी से बढ़ रही है और यह परियोजना ऊर्जा आपूर्ति को स्थिर करने में मदद करेगी।
सरकार का कहना है कि ऊर्जा उत्पादन और आर्थिक विकास के लिए बड़े निवेश आवश्यक हैं, और इस परियोजना से बिहार की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी।
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अन्य राज्यों में भी अडानी प्रोजेक्ट पर हो रहा विवाद
अडानी का पीरपैंती प्रोजेक्ट कोई पहला मामला नहीं है, जिसे लेकर देश में विवाद हो रहा है। इससे पहले भी अडानी समूह की कई परियोजनाएँ अलग-अलग राज्यों में विवादों का केंद्र रही हैं। कभी जमीन अधिग्रहण को लेकर विरोध हुआ तो कभी पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने के आरोप लगे। कहीं स्थानीय लोगों ने विस्थापन के मुद्दे पर सवाल उठाए तो कहीं परियोजना के आर्थिक मॉडल को लेकर राजनीतिक बवाल खड़ा हुआ। यही वजह है कि बिहार के पीरपैंती प्रोजेक्ट को लेकर उठ रही आपत्तियाँ भी एक बड़ी राष्ट्रीय बहस से जुड़ती दिख रही हैं।
1. छत्तीसगढ़ – छत्तीसगढ़ में अडानी समूह की कोयला खनन परियोजना लंबे समय से विवादों में रही है। विशेष रूप से हसदेव अरण्य क्षेत्र में, जहां घने जंगल और समृद्ध जैवविविधता मौजूद है, लाखों पेड़ों की कटाई का विरोध लगातार होता रहा। यह इलाका न केवल पर्यावरणीय दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि यहाँ रहने वाले आदिवासी समुदाय की आजीविका का भी मुख्य आधार है। लोगों का कहना है कि इस परियोजना से उनके जंगल, जल और ज़मीन पर सीधा संकट मंडरा रहा है।
यही कारण है कि सरगुजा और कोरबा जिलों में ग्रामीणों ने बार-बार बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किए। उन्होंने सरकार और कंपनी पर आरोप लगाया कि पर्यावरणीय अनुमति प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं बरती गई और लोगों की सहमति लिए बिना काम आगे बढ़ाया गया। कई सामाजिक संगठनों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने भी आवाज़ उठाई कि हसदेव अरण्य जैसे संवेदनशील क्षेत्र में औद्योगिक परियोजना से न केवल जंगल उजड़ेंगे बल्कि जलवायु संतुलन और स्थानीय संस्कृति पर भी गहरा असर पड़ेगा।
2. झारखंड – झारखंड के हजारीबाग जिले के बड़कागांव ब्लॉक के पाँच गांव — गोंदुलपारा, गाली, बलादार, हाहे और फूलंगा — के ग्रामीण लंबे समय से अदाणी एंटरप्राइज़ लि. के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। मार्च 2021 में मोदी सरकार ने नीलामी प्रक्रिया के जरिये इन गांवों की बहुफसली कृषि भूमि, जंगल और सामुदायिक जमीन कंपनी को हस्तांतरित कर दी थी। किसानों का कहना है कि वे किसी भी कीमत पर अपनी उपजाऊ जमीन को कोयला खनन के लिए नहीं देंगे। इसी विरोध में 12 अप्रैल 2023 से गोंदुलपारा खदान के पास धरना शुरू हुआ, जो 888 दिन बाद ही जारी है।
लोगों का कहना है कि अगर यहां पर माइनिंग शुरू हुई तो आसपास के क्षेत्र के करीब 20000 से अधिक लोगों को विस्थापित होना पड़ेगा। इसलिए हमारा यह आंदोलन जारी है, क्योंकि जब यहां मीनिंग शुरू हो जाएगी और हम लोगों को कहीं दूसरी जगह बसाया नहीं जाता है तो हम आखिर रहेंगे कहां? इस दौरान आंदोलन कर रहे किसानों पर 21 आपराधिक मामले दर्ज हुए और 331 ग्रामीणों को आरोपी बनाया गया। अदाणी की योजना लगभग 1,268 एकड़ भूमि अधिग्रहण की है, जिसमें 552 एकड़ बहुफसली कृषि भूमि और 543 एकड़ वनभूमि शामिल है। ग्रामीणों का आरोप है कि अदाणी इन खदानों के जरिये पूरे झारखंड में अपना दबदबा कायम करना चाहता है।
यह पूरा विवाद अब एक अहम सवाल खड़ा करता है कि क्या विकास और ऊर्जा आपूर्ति की कीमत पर लोगों की ज़मीन, जंगल और आजीविका छीनी जा सकती है? पीरपैंती, हसदेव अरण्य और बड़कागांव- तीनों जगह की तस्वीर लगभग एक जैसी ही है।
सरकार निवेश और बिजली उत्पादन को मजबूती का रास्ता बता रही है, जबकि ग्रामीण अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। लाखों पेड़ों की कटाई, जबरन भूमि अधिग्रहण और मुआवज़े की गड़बड़ियों ने इन प्रोजेक्ट्स को विवादों के घेरे में ला दिया है। अब सवाल यही है कि आने वाले समय में क्या जनता की आवाज सुनी जाएगी या फिर कॉरपोरेट हित ही प्राथमिकता बने रहेंगे?
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