जिस कलम की स्याही से फणीश्वर नाथ रेणु की हिंदी साहित्य में एक नई पहचान बनी, वही कलम जब लोकतंत्र के रण में उतरी तो जनता ने उन्हें सुना जरूर, पर चुना नहीं। “मैला आंचल”, “परती परिकथा” और “तीन बिंदियां” जैसे कालजयी उपन्यासों से ग्रामीण भारत की आत्मा को शब्द देने वाले आंचलिक लेखक फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ ने 1972 में बिहार विधानसभा चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में हिस्सा लिया था। लेकिन यह उनका पहला और आखिरी चुनाव साबित हुआ- एक ऐसा चुनाव जो उनके जीवन का न केवल राजनीतिक, बल्कि वैचारिक मोड़ भी बन गया। फणीश्वर नाथ रेणु का यह किस्सा आज भी सादगी, सिद्धांत और सम्मान की मिसाल दी जाती है।
यह वह दौर था जब साहित्य और समाज एक-दूसरे से गहराई से जुड़े थे। लेखक केवल लिखता नहीं था, बल्कि समाज को दिशा भी देता था। इसी पृष्ठभूमि में बिहार के पूर्णिया (अब अररिया) जिले की फारबिसगंज विधानसभा सीट पर 1972 का चुनाव हुआ। यह वही इलाका था, जिसे रेणु ने अपने उपन्यास “मैला आंचल” में अमर कर दिया था। लोग उन्हें अपने गांव-गांव का आदमी मानते थे, लेकिन जब वे राजनीति के मैदान में उतरे, तो साहित्यिक लोकप्रियता वोटों में तब्दील नहीं हो सकी।
फणीश्वर नाथ रेणु ने यह चुनाव निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ा था। कांग्रेस ने सरयू मिश्र को अपना प्रत्याशी बनाया, जो राज्य के वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं में गिने जाते थे। वहीं समाजवादी पार्टी से सज्जन लाल कपूर मैदान में थे। दिलचस्प बात यह थी कि ये तीनों न सिर्फ राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी थे, बल्कि पुराने दोस्त भी। आज़ादी के आंदोलन के दिनों में तीनों ने मिलकर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया था और भागलपुर जेल में साथ कैद भी रहे थे।
चुनावी प्रचार में कविता, गीत और जनसंवाद
रेणु का चुनावी प्रचार बाकी नेताओं से बिल्कुल अलग था। उनका चुनाव चिन्ह था- ‘नाव’, और प्रचार का नारा लोगों की जुबान पर चढ़ गया – “कह दो गांव-गांव में, आपकी इस चुनाव में, नाव देते नांव में।”
उनके साथ देशभर के युवा साहित्यकार, कवि और कलाकारों की टोली थी। ये लोग गांव-गांव घूमकर नारे नहीं, बल्कि संवाद करते थे। मंच पर रेणु विरोधियों पर प्रहार नहीं करते थे, बल्कि गीत गाते, कविताएं सुनाते और जनता से भावनात्मक जुड़ाव बनाते थे। उनकी सभाओं में भीड़ उमड़ती थी, माहौल में साहित्य का रस घुला होता था, लेकिन वह जोश वोटों में तब्दील नहीं हो सका।
राजनीति के उस दौर में भी विचारधारा की जमीन खिसकने लगी थी। संगठन, जातीय समीकरण और सत्ता की गणना के आगे रेणु की सादगी कहीं खो गई। उन्होंने चुनाव इसलिए लड़ा भी नहीं था कि जीतें, बल्कि इसलिए कि हुकूमत के प्रतीकात्मक विरोध में अपनी बात रख सकें।
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जब तीनों दोस्त ही चुनावी रण में उतरे
1972 के इस चुनाव में रेणु, सरयू मिश्र और सज्जन लाल कपूर- तीनों मित्र आमने-सामने थे। लेकिन आज की तरह कटुता, आरोप-प्रत्यारोप या घृणित भाषण नहीं थे। तीनों ने पूरे अभियान के दौरान एक-दूसरे पर कोई व्यक्तिगत टिप्पणी नहीं की। यह शायद भारतीय राजनीति के इतिहास में उन विरले चुनावों में से था, जहां प्रतिद्वंद्विता मित्रता की मर्यादा में लड़ी गई।
फणीश्वरनाथ रेणु को 10 फीसदी ही वोट मिले
जब परिणाम आए, तो कांग्रेस के सरयू मिश्र को लगभग 40 प्रतिशत वोट मिले और वे विजयी हुए। समाजवादी उम्मीदवार सज्जन लाल कपूर को करीब 13 प्रतिशत, जबकि फणीश्वर नाथ रेणु को 10 प्रतिशत वोट मिले। रेणु चौथे स्थान पर रहे। हार के बावजूद उन्होंने चेहरे पर शिकन नहीं आने दी, क्योंकि वे जानते थे – यह चुनाव जीतने के लिए नहीं, बल्कि विचार व्यक्त करने के लिए था।
राजनीति से मोहभंग और आत्मसंयम की कसम
इस चुनाव के बाद रेणु ने राजनीति से हमेशा के लिए दूरी बना ली। उन्होंने अपने एक प्रसिद्ध किरदार “रोगां गुत्ता” की तरह जीवन की तीन कसमों में से एक कसम राजनीति से दूर रहने की खाई।
वे अक्सर कहा करते थे – “राजनीति में सिद्धांत नहीं, समीकरण चलते हैं। मैं समीकरणों का आदमी नहीं।”
उनके घर में चुनाव के दौरान देश के कई बड़े कवि, लेखक और चिंतक जुटते थे। वहां जनसभा से ज्यादा विचारों की महफिल सजती थी। वे जनता को केवल नेता नहीं, बल्कि एक साथी की तरह संबोधित करते थे। लेकिन चुनाव परिणाम ने उन्हें यह एहसास दिलाया कि साहित्य की लोकप्रियता और राजनीति की गणित दो अलग दुनिया हैं।
पुत्र ने ली पिता की हार का बदला
भले ही रेणु राजनीति में हार गए हों, लेकिन साहित्य में उन्होंने जो जीत हासिल की, वह आज भी कायम है। “मैला आंचल” ने उन्हें भारत के ग्रामीण समाज की आत्मा का चित्रकार बना दिया। “मारे गए गुलफाम” पर बनी फिल्म “तीसरी कसम” ने उन्हें जन-जन तक पहुंचा दिया।
वक्त का पहिया घूमा और 2010 में उनके बड़े पुत्र पदम पराग रेणु ने फारबिसगंज सीट से चुनाव जीतकर पिता की हार का बदला लिया। यह इतिहास का भावनात्मक मोड़ था- जहां पिता की असफलता ने एक युग का अंत किया था, वहीं बेटे की जीत ने उसी स्मृति को अमर कर दिया।
फणीश्वर नाथ रेणु का चुनावी सफर भले ही एक हार के साथ समाप्त हुआ, लेकिन उस एक हार में भी सिद्धांतों की जीत छिपी थी। उन्होंने दिखा दिया कि राजनीति में भी आदर्श, मर्यादा और ईमानदारी की जगह हो सकती है। वे भले ही सत्ता तक न पहुंच पाए, पर साहित्य और समाज के दिलों में आज भी राज करते हैं।
कभी उन्होंने लिखा था- “सच्ची जीत वह नहीं जो सत्ता दिलाए, सच्ची जीत वह है जो आत्मा को चैन दे।”
और शायद इसी सच्चाई के कारण, फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ राजनीति में हारकर भी इतिहास में हमेशा के लिए जीत गए।
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