भारत में महिलाएं संघर्ष करते हुए आगे बढ़ तो रही हैं, लेकिन जब जेल में बंद महिलाओं की बात सामने आती है, तो अलग ही स्थिति उभरकर सामने आती है। क्योंकि जेल में बंद महिलाओं का जीवन पुरुषों की तुलना में मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से कहीं अधिक पीड़ादायक है। इसकी एक वजह ये भी है कि भारत की जेलों में बंद कैदियों की संख्या का एक बड़ा हिस्सा उन कैदियों का है, जिनकी सजा कोर्ट अभी तक तय नहीं कर पाया है।
विचाराधीन कैदियों की बढ़ती संख्या
इससे जुड़ा जिक्र कुछ समय पहले सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायधीश ने अपने एक अभिभाषण में किया था। उन्होंने कहा था कि न्याय प्रणाली को प्रभावित करने वाले विचाराधीन कैदियों की उच्च संख्या एक गंभीर मुद्दा है। देश के 6.10 लाख कैदियों में से करीब 80 फीसदी विचाराधीन कैदी हैं, जो कि आपराधिक न्याय प्रणाली प्रक्रिया में देरी के चलते सजा काट रहे है। इसी तरह नालसा द्वारा आयोजित अखिल भारतीय जिला विधिक सेवा प्राधिकरण की पहली पहली बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कानूनी सहायता के अभाव में जेल में बंद विचाराधीन कैदियों पर चिंता व्यक्त करते हुए जिला कानूनी सेवा प्राधिकरणों से जिला स्तरीय विचाराधीन समीक्षा समितियों द्वारा विचाराधीन कैदियों की रिहाई में तेजी लाने का आग्रह किया था।
जेल में व्यवस्था सुधार करने में जेलर की भूमिका
जब हमने इस दिशा में बिहार की आठ जेलों में इस विषय पर शोध किया तो पाया की यह उतना मुश्किल भी नहीं की कोई प्रशासनिक अधिकारी अगर चुनौतियों के बीच काम करना चाहे तो उसे किया ना जा सके। जब जेल बंद महिला कैदियों की स्थिति जानने के लिए कुछ जेलर से बातचीत की तो एक बात समझ में आई कि कोई भी जेलर या जेल अधीक्षक की मंशा अगर जेल में बंद कैदियों के साथ मानवीय व्यवहार करने के साथ उनके लिए सुधारात्मक कार्य करने की रहे तो यह बहुत हद तक निश्चित किया जा सकता है कि जेल और कैदी दोनों की दशा और दिशा में सकारात्मक बदलाव देखने को मिलेंगे।
गया सेंट्रल जेल में महिला कैदी की स्थिति
इसे लेकर जब मार्च 2021 में बिहार के गया सेंट्रल जेल जाना हुआ तो कैदियों की दशा और उनकी मानसिक स्थिति पहले की तुलना में बेहतर नजर आई। उस दौरान उस जेल में रामानुज राम जेल के उपाधीक्षक की भूमिका में थे। बाद में वे पटना बेऊर सेंट्रल जेल में अधीक्षक की भूमिका में रहे और मौजदा समय में बेतिया जिले की जेल में अधीक्षक के रूप में अपनी सेवा दे रहे हैं।
गया सेंट्रल जेल के भीतर चारों ओर एक सकारात्मक माहौल स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था। हर कैदी स्वतंत्र और तनावमुक्त दिखाई दे रहा था। कैदी के चेहरे को देखकर ऐसा लग रहा था कि उपाधीक्षक से बिल्कुल डरे नहीं हों। वे उनके प्रति बहुत सम्मान दिखाते थे। यह व्यवहार कैदियों में मानसिक रूप से अकेला पड़ने को रोकने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम नजर आया।
गया सेंट्रल जेल की महिला कैदियों के लिए पहल
गया सेंट्रल जेल में हमने पाया कि कैदियों के साथ कैदी जैसा व्यवहार कम देखने को मिली और उसे फिर से सामान्य जीवन यापन करने के लिए प्रशासनिक अधिकारियों की ओर से वे तमाम कार्य महिला कैदियों के लिए किए जा रहे थे, जो एक सामान्य महिलाओं को आम जीवन में करना पड़ता है। गया सेंट्रल जेल में महिला कैदियों की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा की जानेवाली सकारात्मक पहल इस प्रकार हैं:
प्रत्येक महिला वार्ड में नई रसोई स्थापित की जा रही थी। यह महिला कैदियों के लिए एक अलग व्यवस्था थी, जहाँ महिलाएं अपना खाना आदि बनाने में व्यस्त हो सकती थीं।
महिलाओं को अपना नियमित काम करने की अनुमति प्राप्त थी, उनमें से कुछ पढ़ रही थीं, जबकि अन्य अपने सांसारिक गतिविधियों में व्यस्त थीं। विशेष रूप से उन लोगों के लिए एक स्वतंत्र और अलग अध्ययन कक्ष का प्रावधान था, जो आगे की पढ़ाई करना चाहते थे। एक कैदी इस सुविधा का उपयोग कर रही थी जो जूडीसरी की शिक्षा ले रही थी।
सभी कैदियों को जेल के लैंडलाइन से जेल के बाहर अपने परिवार के सदस्यों के साथ टेलीफोन पर बातचीत करने की सुविधा प्रदान की जा रही थी। वे इस सुविधा का उपयोग महीने में दो बार (15 दिनों में एक बार) कर सकते थे।
मनोरंजन के लिए उच्च अधिकारियों से उचित अनुमति के साथ हर कमरे में एक टीवी स्थापित किया गया था। ताकि महिला वार्ड में कैदियों के बीच कोई हिंसा या अराजकता न फैले। इससे महिलाएं अपने काम में व्यस्त थीं। जिसके बाद अधिकारियों ने सभी वार्डों में यह सुविधा उपलब्ध कराई गई।
अन्य जेलों में बदहाल व्यवस्था व कैदियों की पीड़ा
वहीं बिहार के अन्य जेलों में यह सुविधा उतनी मुखर नहीं दिखी। अगर हम बात सासाराम और आरा जेल की करें तो वहां की जेलों में स्थिति बिल्कुल गया सेंट्रल जेल से भिन्न थी। वहां की जेलों में महिला कैदियों को यह भी पता नहीं था कि बाहर में क्या हो रहा है, वहां गरीब और मध्यवर्गीय परिवारों की अधिकतर महिलाएं अपनी लड़ाई खुद ही लड़ रही थीं। उनके लिए कोई सरकारी वकील भी केस लड़ने वाले नहीं थे। न ही वे अपनी समस्याएं अपने घर-परिवार के सदस्यों तक पहुंचाने के लिए चिट्ठी और टेलीफोन का उपयोग सही से कर सकते थे। इन जेलों में एक चिट्ठी तक लिखने के लिए कागज और कलम तक उपलब्ध नहीं थे।
बिहार की आठ जेलों में 60 में से 23 महिलाओं ने बताया कि उन्हें बुनियादी सुविधाओं जैसे नींद, खान-पान, स्वच्छता, कपड़े, चिकित्सा सहायता, मनोरंजन का अभाव है और परिवार से संपर्क करने में समस्या होती है। जबकि 24 ने कहा है कि उनको इससे कोई समस्या नहीं है और 13 ने इसपर कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दी। इसका एक बड़ा कारण उन जेलों में महिला कैदियों में एक दबंग महिला कैदी का होना भी था, जो सभी के एक्टिविटी पर नजर रख रही थी। जिसकी वजह से कुछ महिलाओं ने अपनी बातें सामने नहीं रखीं।
सुधार के लिए आवश्यक कदम व अधिकारियों को भूमिका
जेल में बंद सभी कैदियों को एक निश्चित समय के बाद उनके परिवार से बात करने, उनको चिठ्ठी लिखने, अख़बार पढने के अलावा दिन के उजाले में जेल प्रांगण में घूमने जैसी छोटी जरूरतों की छूट दी जानी चाहिए। जो महिलाएं अपने छोटे-छोटे बच्चों के संग जेल में हैं, उनको भी एक अच्छा वातावरण देने पर अधिक से अधिक कार्य करने की जरूरत है। जेल के भीतर रोजगार के साधनों को और अधिक बढ़ाने की जरूरत है, जिससे की वहां रहने वाले कैदी अपने समय का सदुपयोग करने के साथ अपने लिए आमदनी भी कर सके। राज्य के अन्य जेलों में भी रामानुज जैसे अधिकारियों के कार्यों को अमल में लाना चाहिए। ताकि अन्य जेलों की स्थिति बेहतर हो सके और जिससे जेल कोई जेल न होकर एक आदर्श कारागाह बन पाए। जेल को सिर्फ कैदियों को सजा देने का स्थान नहीं, बल्कि सुधार और पुनर्वास का केंद्र बनाना होगा, जिससे कैदी समाज में पुनः सम्मानजनक जीवन व्यतीत कर सकें। इस दिशा में पहल की जानी चाहिए।
साथ ही, जेलों की व्यवस्था को देखने के लिए या शोध जैसे कार्यों के लिए भीतरी ढांचों को देखने और समझने की एक व्यवस्था की जानी चाहिए। ऐसा ना हो कि सिर्फ किसी सरकारी या गैर सरकारी संस्था या पहचान के व्यक्ति को पुल बनाना पड़े। बाहर के सामाजिक जोड़ को भीतरी दुनिया से हमेशा जुड़ा होना चाहिए।
यह लेख पूजा कुमारी ने लिखा है। वह शोधकर्ता और पॉलिसी पर्सपेक्टिव फाउंडेशन में चीफ कोऑर्डिनेटर रह चुकी हैं।