“रोड नहीं तो वोट नहीं, पहले रोड बाद में वोट…”
यह सिर्फ एक नारा नहीं, बल्कि बिहार के आरा जिले के शाहपुर प्रखंड के धमवल गाँव के लोगों की पीड़ा है, धमवल वासियों का संघर्ष है, जो वर्षों से करते आ रहे हैं। आज़ादी के 77 साल बीत गए, लेकिन महज 18 किलोमीटर दूर प्रखंड मुख्यालय से जुड़ने वाली एक पक्की सड़क तक इस गांव को नसीब नहीं हुई। लोकतंत्र में जहां वोट सबसे बड़ी ताकत मानी जाती है, उसी लोकतंत्र में धमवल गांव के हजारों वोटरों की कोई ‘कीमत’ नहीं।

बहोरनपुर पंचायत में बसे धमवल गांव की आबादी करीब चार हजार है। लेकिन गांव में बुनियादी जरुरतें जैसे- न सड़क, न पीने का साफ पानी, न बिजली की गारंटी, और न ही स्वास्थ्य एक सपना बनकर रह गया है। एक तरफ सरकार देश को तेजी से डिजिटल इंडिया की ओर देश को लेकर जा रही है, स्मार्ट विलेज की परिकल्पना गढ़ती है, और दूसरी ओर आज भी इस गांव में मरीज को अस्पताल तक पहुंचाने के लिए लोग बांस की बैसाखी से खटिया लटकाकर दो-दो किलोमीटर तक चार लोग पैदल चलकर अस्पताल तक पहुंचाते हैं।

धमवल गांव की यह स्थिति सवाल खड़ा करती है कि क्या वास्तव में भारत गांवों का देश है? क्या महात्मा गांधी ने इसे ही कहा था कि भारत गांवों का देश है। और भारत की आत्मा उसके गांवों में बसती है। क्या गांधी यही ग्रामीण स्वराज और ग्राम विकास को भारत के विकास का आधार मानते थे।
ग्रामीण विजय पांडे का कहना है कि आज़ादी के बाद से लेकर अब तक धमवल गाँव में एक बार भी पक्की सड़क नहीं बनाई गई है। आजादी के इन 78 सालों में सरकारें आईं और गईं लेकिन धमवल वासियों के जीवन में कोई बदलाव नहीं आया। यहां के लोग आज भी गांव तक सड़कें पहुंचाने की लड़ाई सरकार और इस सिस्टम से लड़ रहे हैं। वहीं ग्रामीण नागेंद्र सिंह बताते हैं कि बरसात और बाढ़ के मौसम में स्थिति और भयावह हो जाती है। बच्चे स्कूल नहीं जा पाते, मजदूरों की रोज़ी रोटी बंद हो जाती है। हम तो जैसे जी नहीं रहे, बस अब ज़िंदा हैं।

खटिया से लेकर जाना पड़ता अस्पताल
बहोरनपुर पंचायत की मुखिया सीता देवी कहती हैं कि ये संघर्ष यहीं तक नहीं थमता… इसके आगे की कहानी सरकार और इस सिस्टम की पोल खोलती है, जो विकास का ढिंढोरा पीटने हैं और ग्रामीणों के जीवन को बेहतर बनाने की दिशा में बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। वह बताती हैं कि जब गांव के कोई लोग बीमार पड़ जाते हैं, तो गांव तक कोई भी एंबुलेंस नहीं आती है, मरीजों को इलाज के लिए चार लोग बांस की बैसाखी लगा खटिया को टांग कर अस्पताल लेकर जाते हैं।
गांव में नहीं है कोई स्वास्थ्य सेवा
ग्रामीण बताते हैं कि गांव में स्वास्थ्य सेवा को लेकर सरकार की ओर से कोई पहल नहीं किया गया। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा के लिए भी ग्रामीणों को दस किलोमीटर दूर जाना होता है। अगर रात में किसी की तबीयत बिगड़ जाती है तो मरीज भगवान भरोसे होते है।
यह भी पढ़ें – कागजों में समाई योजनाएं, चुआं के सहारे बुझाते प्यास; जानिए बिहार के आदिवासी गांव की बदहाल कहानी
प्रशासन और जनप्रतिनिधियों से गुहार
ग्रामीण बताते हैं कि सड़क की समस्या को लेकर हमने कई बार स्थानीय प्रशासन, जनप्रतिनिधियों और यहां तक कि मुख्यमंत्री कार्यालय तक को भी आवेदन दिए हैं, लेकिन हर बार सिर्फ आश्वासन मिला है, समाधान नहीं। गांव की इस समस्या को ले विधायक और सांसद का कहना है कि सड़क विवादित ज़मीन होने की वजह से सड़कों के बनने में बाधा आ रही है, और अब तक सड़क नहीं बन सकी।

विवादित जमीन का हवाला देकर किया नजरअंदाज
ग्रामीणों ने इस संबंध में सांसद और विधायक से कई बार गुहार लगाई कि दोनों गांवों के बीच में जो विवादित ज़मीन है, उसका कोई समाधान कीजिए लेकिन सांसद और विधायक ने ये कहकर मना कर दिया कि उनको इस सड़क से कोई विवाद खड़ा नहीं करना है।
ग्रामीणों ने सड़क की इस समस्या को लेकर प्रशासनिक अधिकारियों को भी सैंकड़ों बार डीएम, एसडीएम और बीडीओ के पास आवेदन दिया। लेकिन उन आवेदनों पर न तो किसी जनप्रतिनिधि ने तो और न ही किसी प्रशासनिक अधिकारियों ने कोई कार्रवाई की। जब भी ग्रामीणों ने अधिकारियों से पुराने आवेदन को लेकर सवाल पूछा तो सभी अधिकारियों ने एक ही सुर में हर बार बस एक ही बात विवादित जमीन का हवाला देकर इसे नजरअंदाज किया।

40 साल से कोई सांसद नहीं आया गाँव
धमवल के बुजुर्ग कहते हैं कि करीब 40 साल पहले कोई सांसद यहां वोट मांगने आया था, उसके बाद से अब तक किसी भी सांसद ने यहां आना मुनासिब नहीं समझा। न कोई दौरा, न कोई सर्वे, न कोई घोषणाएं। धमवल जैसे गांवों के लिए ‘लोकतंत्र’ सिर्फ एक कल्पना है, जो हर चुनावी घोषणा पत्र में जिंदा रहती है और हर नतीजे के बाद मर जाती है।

वोट बहिष्कार के बाद भी नहीं टूटी सरकार की नींद
2024 के लोकसभा चुनाव में पूरे गाँव ने इस उपेक्षा के खिलाफ वोट बहिष्कार किया था। इसके बाद प्रशासन हरकत में आया और एसडीएम धमवल गांव निरीक्षण के लिए पहुंचे थे। उन्होंने सड़क निर्माण की दिशा में काम करने का वादा किया। लेकिन आज, कई महीने बीत जाने के बाद भी सड़क को लेकर न तो कोई सर्वे हुआ, न बजट पास हुआ, और न ही कोई काम शुरू हुआ।
धमवल की कहानी सिर्फ एक गांव की नहीं है, ये उन हजारों गांवों की कहानी है जो आज भी संविधान में मिले अपने ‘अधिकारों’ को सरकारी फाइलों में तलाश रहे हैं। जहां विकास सिर्फ चुनावी घोषणा बनकर रह गया है, और उम्मीदें हर चुनाव के बाद दम तोड़ देती हैं। धमवल के ग्रामीणों को आज भी उम्मीद है कि हमारे गांव तक भी सड़कें पहुंचेगी और हमारा जीवन भी बेहतर होगा।
इस खबर को दीपक कुमार तिवारी ने लिखा है। वे पेशे से इंजीनियर हैं और फ्रीलांस कंटेट राइटर हैं।