इस बात में कोई दोराय नहीं कि महिलाएँ समाज के हर क्षेत्र में अपनी जगह बना चुकी/रही हैं। जब कभी भी महिलाओं द्वारा किसी खास क्षेत्र में कोई विशेष उपलब्धि हासिल करने की बात होती है तब लोग अपने आप उस बात को किसी हाईप्रोफाइल क्षेत्र से जोड़ लेते हैं जैसे कि विज्ञान, राजनीति, तकनीक और खेल आदि।
समाज के अधिकतर लोगों का आज भी मानना है कि महिलाएँ घर का काम करें या फिर कुछ आसाधारण-सा काम कर जाएँ। महिलाओं से अक्सर पुरुष प्रधान समाज की यही उम्मीद रहती है। पर 1980 के दशक में एक ऐसी महिला लोगों के सामने आई जिसने लोगों के नज़रिए को बदलने का प्रयास किया।
पहली महिला ऑटो रिक्शा चालक
शीला दावरे ने महाराष्ट्र में ऑटो रिक्शा चालक बन कर लोगों की सोच पर चोट की। शीला भारत की पहली महिला ऑटो रिक्शा चालक हैं जिन्होंने कई लोगों को प्रेरणा दी है।
80 के दशक में कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि कोई महिला एक ऑटो रिक्शा चालक हो सकती है। ऑटो रिक्शा चलाने को हमेशा से पुरुष प्रधान पेशा माना जाता रहा है। छोटे शहरों में आज भी किसी महिला को चालक के रूप में देखते हैं तो लोग अचम्भित हो जाते हैं। समाज में तो महिलाओं के चालक होने पर पूर्वाग्रह भी हैं- ‘महिलाएँ दाएँ की लाइट देकर बाएँ मुड़ जाती हैं’, कोई गलती होने पर ‘महिलाएं हैं न’ या फिर समाज में बनी एक आम धारणा की ‘महिलाएं अच्छी ड्राइवर नहीं’।
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12 रुपये से ऑटो खरीदने तक की दास्तान
शीला एक इंटरव्यू में बताती हैं कि जब वो 18 साल की थी तब उन्होंने अपने माता-पिता का घर छोड़ कर परभणी से पुणे आ गईं। उस समय उनके पास केवल 12 रुपये थे, न घर, न कोई काम। पर शीला ने हार नहीं मानी और 1988 में रिक्शा और उसको चलाने का परमिट हासिल किया।
शीला ने 10वीं कक्षा में जब पहली बार ऑटो देखा तब से ही उन्हें ऑटो से प्रेम हो गया। उन्होंने ऑटो के बारे में जानकारी लेने के लिए एक ऑटो चालक से दोस्ती की और ऑटो चलाना भी सीख लिया। इस कारण उनके गांव के लोग और परिवार वाले गुस्सा होंगे।
फिर जैसे ही शीला की उम्र 18 हुई तब शीला को कुछ लड़कों की फ़ोटो दिखाई जाने लगी तब उन्होंने घर से भागने का निर्णय लिया और एक NGO में शरण ली। फिर ऑटो संगठन का दौरा किया जहाँ शीला को कहा गया कि “हम एक महिला पर भरोसा नहीं कर सकते” पर उन्होंने हार नहीं मानी और लाइसेंस हासिल कर लिया।
शीला को अधिकारी कहा करते थे कि “ये एक पुरुष प्रधान पेशा है” जिसपर वो कहतीं “अगर मैं मूँछ लगा लूँ तो मुझे परमिट मिल जाएगा?” उनकी परमिट की जंग 4 महीने चलती रही। फिर उन्होंने बैंक से लोन लेकर अपना ख़ुद का ऑटो खरीदा।
दावरे के सफर की शुरुआत
शीला के लिए तो ये अभी शुरुआत थी। 80 के दशक में एक ओर जहाँ सड़कों पर अकेली लड़कियों का चलना मुश्किल होता था और वहीं दूसरी ओर शीला जज़्बे के साथ सड़कों पर अपना रिक्शा दौड़ा रही थीं। ऐसे माहौल में यह काम कर पाना अपने आप में बहुत बड़ी जंग थी। शीला अपनी सुरक्षा के लिए अपने साथ हमेशा मिर्ची पाउडर रखती थीं और कोई घर न होने के कारण वो रात में रिक्शे की डिक्की में छुपकर सोया करती थीं।
शीला केवल किसी एक के साथ जंग नहीं लड़ रही थी। वो समाज, परिवार और व्यवस्था से लड़ रही थीं। शीला एक इंटरव्यू में बताती हैं कि उनको परमिट लेने में बहुत तकलीफ़ हुई थी। लोग हमेशा मुझ पर फब्तियाँ कसते थे, मेरे निर्णय को लेकर मेरा मज़ाक उड़ाते थे। पर जब मुझे ‘Limca Record’ मिला तो चीज़े बदलने लगीं।
शीला कुछ समय बाद अपने घर लौट गईं। उन्होंने 2001 में अपने पति के साथ मिलकर ट्रेवल एजेंसी खोली पर उनका असल सपना महिला ऑटो चालकों को प्रशिक्षित करना है। अगर आपकी क़िस्मत अच्छी हुई तो आप महाराष्ट्र में आज भी शीला दावरे को ऑटो चलाते देख सकते हैं।
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