भारत में महिलाएं संघर्ष करते हुए आगे बढ़ तो रही हैं, लेकिन जेल में बंद महिलाओं की बात सामने आती है, तो अलग ही स्थिति उभरकर सामने आती है। क्योंकि जेल में बंद महिलाओं का जीवन पुरुषों की तुलना में मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से कहीं अधिक पीड़ादायक है। हालांकि भारतीय संविधान के तहत एक कैदी भी सम्मान के साथ जीने का अधिकार रखता है। परंतु विश्व के तमाम देशों की तरह भारत में भी कैदी के बारे में चिंता कम ही की जाती है। फिर अगर बात महिला कैदियों की आती है तो ये स्थिति और भी चिंतनीय हो जाती है। इसकी एक वजह ये भी है कि भारत की जेलों में बंद कैदियों की संख्या का एक बड़ा हिस्सा उन कैदियों का है, जिनकी सजा कोर्ट अभी तक तय नहीं कर पाया है।
इससे जुड़ा जिक्र कुछ समय पहले सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायधीश ने अपने एक अभिभाषण में किया था। उन्होंने कहा था कि न्याय प्रणाली को प्रभावित करने वाले विचाराधीन कैदियों की उच्च संख्या एक गंभीर मुद्दा है। देश के 6.10 लाख कैदियों में से करीब 80 फीसदी विचाराधीन कैदी हैं, जो कि आपराधिक न्याय प्रणाली प्रक्रिया में देरी के चलते सजा काट रहे है। इसी तरह नालसा द्वारा आयोजित अखिल भारतीय जिला विधिक सेवा प्राधिकरण की पहली पहली बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कानूनी सहायता के अभाव में जेल में बंद विचाराधीन कैदियों पर चिंता व्यक्त करते हुए जिला कानूनी सेवा प्राधिकरणों से जिला स्तरीय विचाराधीन समीक्षा समितियों द्वारा विचाराधीन कैदियों की रिहाई में तेजी लाने का आग्रह किया था।
‘INCARCERATED GENDER: A STUDY OF WOMEN PRISONERS IN BIHAR JAILS (2020-2024)’ नामक नवीनतम शोध, जेल में बंद महिलाओं की स्थिति की पड़ताल करता है। इस शोध से पता चलता है कि बिहार की जेलों में बंद महिलाएं विभिन्न मानवाधिकार उल्लंघनों की शिकार हैं। सैद्धांतिक रूप से यह शोध एक अंतःविषय मानवाधिकार परिप्रेक्ष्य पर आधारित है और इसमें अनुभवजन्य क्षेत्र कार्य के आधार पर साक्षात्कार और अनौपचारिक बातचीत के बाद की गई। इसमें बिहार के 8 जेलों की 60 महिला कैदियों को शामिल किया गया है। इसके अलावा समस्या को सामरिक रूप से समझने के लिए नागरिक समाज, गैर-सरकारी संस्थाओं और जेल के अधिकारियों से भी बात की गई।
जेलों में बंद हैं, क्षमता से अधिक कैदी
मार्च 2023 में बिहार राज्य विधान परिषद ने इससे जुड़े कुछ आंकड़े जारी किए थे।
इसके अनुसार, बिहार की जेलों में कुल 62,108 कैदी हैं, जिनमें से 2,730 महिलाएं हैं। हालांकि 31 मार्च 2023 तक बिहार की 59 जेलों की क्षमता 47,750 थी, जिसमें आठ केंद्रीय जेल भी शामिल हैं। इस तरह बिहार की जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों को रखना, अपने आप में एक प्रकार से मानवाधिकारों का उल्लंघन है।
कैदियों की कुछ सामान्य समस्याएं
रिसर्च के दौरान कुछ तथ्य सामने आए, जो लगभग सभी जेलों पर लागू होते हैं। इसमें कैदियों का खराब मानसिक स्वास्थ्य, इलाज के दौरान लापरवाही, अधिकांश कैदियों का समाज के वंचित/गरीब वर्ग से होना। इसमें एससी, एसटी और अल्पसंख्यक वर्ग से जुड़ी महिलाएं अधिक थीं।
महिलाओं की दुर्दशा के दो अलग तर्क
एक तरफ आधिकारिक आंकड़े हैं, जो महिलाओं के खराब स्वास्थ्य को उनकी ऐसी स्थिति का प्रमुख कारण बताते हैं। तो वहीं जेल में काम करने वाले लोग समाज की यातना, रिश्वत, भ्रष्टाचार और चिकित्सीय देखभाल की कमी को महिला कैदियों की दुर्दशा का प्रमुख कारण मानते हैं। ये दोनों ही तर्क अलग-अलग दिशा में संकेत देते हैं।
महिला कैदियों की स्थिति में हुआ सुधार
शोध के दौरान एक सकारात्मक पहलू नजर आया कि पिछले दशकों के मुकाबले महिलाओं पर जेल में होने वाली यातना में कमी आई है। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और नागरिक समाज के कई सदस्यों ने इसे स्वीकार किया है। इसके बावजूद, यातना विरोधी कानून की आवश्यकता बनी हुई है। यह कानून राज्य की लोकतांत्रिक छवि को सशक्त बनाने का काम करेगा। पुलिस एवं जेल अधिकारियों की वैसी गतिविधियों और निरंकुश कार्यशैली पर लगाम लगाएगा और उनकी जिम्मेदारी तय करने में मदद करेगा।
आवंटित बजट भी नहीं हो रहा खर्च
वहीं, अगर सरकार की ओर से जेल के लिए आवंटित राशि पर नजर डाली जाए तो बिहार में वित्तीय वर्ष 2020-21 में 587.2 करोड़, 2021-22 में 797.3 करोड़ और 2022-23 में 635.1 करोड़ रुपए का कुल बजट पास हुआ था। जबकि इन सालों में वास्तविक खर्च इससे कम हुआ था। क्रमशा अगर देखें तो ये 490.8, 590.4, 635.1 करोड़ रुपए थे। मतलब सरकार की ओर से आवंटित राशि में से तीनों सालों में क्रमशः 96.4, 206.9 और 253.9 करोड़ रुपये राशि का उपयोग नहीं हो सका।
कैदियों पर इतना खर्च कर रही सरकार
बिहार में वित्तीय वर्ष 2022-23 के दौरान कैदियों पर खर्च के आंतरिक ब्योरे की बात करें तो भोजन पर 184.4, कपड़े 5.49, मेडिकल में 5.51, व्यावसायिक 0.00 और शैक्षणिक कार्यों में 0.00, कल्याणकारी गतिविधियाँ 26.58 व अन्य पर 221.99 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि कोविड के बाद से व्यावसायिक और शैक्षणिक गतिविधियों पर कोई खर्च नहीं किया गया, जबकि अन्य श्रेणियों पर अधिक राशि खर्च की गई। इनसे ये भी रेखांकित होता है कि सरकार और जेल प्रशासन की प्राथमिकता क्या है।
जेल में अधिकांश महिला कैदी निम्न आय वर्ग के
आंकड़ों के अनुसार जेल में बंद अधिकांश महिलाएं निम्न मध्यम वर्ग से हैं। आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण अधिकांश महिलाओं के परिजन जमानत कराने तक के पैसे नहीं जुटा पा रहे हैं। इस कारण भी कैदियों की संख्या अधिक है। एक संगठन ने जेल में बंद 60 महिलाओं का इंटरव्यू किया। इसके अनुसार 35-50 वर्ष की 32 महिलाएं निम्न आय वर्ग से, 50-65 वर्ष की 11 महिलाएं मध्यम आय वर्ग की थी। केवल 2 महिलाएं जिनकी उम्र 18 और 65 थी, वो उच्च आय वर्ग से थीं। बाकी इंटरव्यू में शामिल 15 महिलाएं जिनकी उम्र 20-35 साल थी वे इस बारे में जानकारी नहीं दे पाईं।
जेल में बंद अधिकांश महिलाएं निरक्षर
जेल में बंद अधिकांश महिलाएं निरक्षर थीं। केवल 4 महिलाएं प्राइमरी तक, 8 महिलाएं 12वीं तक और सिर्फ 2 महिलाएं ग्रेजुएट या पोस्ट-ग्रेजुएट थीं। जेल प्रशासन शिक्षा व्यवस्था की बात करता है। लेकिन एक सवाल यह भी उठता है कि प्रशासन इन निरक्षर महिलाओं तक अभी तक क्यों नहीं पहुंच पाया है, आखिर क्यों इन लोगों से शिक्षा अभी भी कोसो दूर है।
अधिकांश के पास बुनियादी सुविधाओं का अभाव
जेल में बंद 60 में से 23 महिलाओं ने बताया कि उनके पास बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। इसमें पर्याप्त नींद, स्वच्छता, साफ सुथरे कपड़े, मेडिकल सुविधाएं और मनोरंजन शामिल है। इसके साथ ही उन्होंने बताया कि उन लोगों को अपने परिजनों से संपर्क करने में भी समस्या होती है। वहीं 24 महिलाओं ने कहा कि उन्हें इन मामलों से जुड़ी समस्याएं नहीं है। सर्वे में शामिल हुईं 13 महिलाओं ने इस मामले में कोई जवाब नहीं दिया।
मानसिक स्वास्थ्य बना गंभीर चुनौती
बातचीत में सामने आया कि जेल में बंद कैदियों के लिए मानसिक स्वास्थ्य एक बड़ी गंभीर समस्या है। कैदियों के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर पटना हाईकोर्ट द्वारा दिए गए सुझावों को पूरी तरह लागू करना जेल प्रशासन के लिए मुश्किल हो रहा है। इसकी वजह बिहार में मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की कमी है। जिसे वे एनजीओ के सहयोग से ‘मिशन विहान’ के तहत स्वास्थ्य शिविर लगाकर पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं। 60 में से 22 महिलाओं ने कहा कि जेल में कोई मनोचिकित्सक या मनोवैज्ञानिक नहीं है, जबकि 12 ने कहा कि ये सेवाएं तिमाही आधार पर उपलब्ध थीं।
परिजनों से संपर्क और मानसिक समस्याएं
60 में से 30 महिलाओं ने बताया कि वे अपने परिवार से नहीं मिलीं। वहीं नौ महिलाओं ने कहा कि वे दो महीने के अंतराल में अपने परिवार से मिलीं हैं। कोविड के शुरुआती दिनों में बिहार के जेलों में बाहरी संपर्क पर प्रतिबंध लगाया गया था, जिसने पुरुषों की तुलना में महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य को बुरी तरह प्रभावित किया था। हालांकि जेल अधिकारी इस बात को स्वीकार नहीं करते हैं कि कैदियों को उनके परिवार से मिलने से कभी रोका गया हो। एक जेल अधिकारी ने बताया कि इस दौरान कैदियों में अपने भविष्य को लेकर अधिक चिंताएं दिखीं। ये लोग अपने परिवारों की खोज-खबर न मिल पाने कि वजह से मानसिक रूप से अधिक परेशान दिखे।
इस आधार पर यह कहना गलत नहीं होगा कि बिहार के जेलों में महिलाओं की स्थिति निराशाजनक है। हालांकि, पिछले कुछ सालों में सुधार भी हुए हैं। महिलाओं की स्थिति की बेहतरी के लिए जेलों में व्यावसायिक, शैक्षिक और कल्याणकारी गतिविधियाँ शुरू की गई हैं। इसके बावजूद इस ओर अभी और भी सुधार की आवश्यकता है। महिलाओं के लिए जेल में बेहतर कानूनी सहायता की जरूरत को देखते हुए आगे उनकी मदद को प्रशासनिक सुविधाओं में वृद्धि करने की आवश्यकता है, खासकर जिनकी आर्थिक हालत अधिक खराब है।
यह लेख पूजा कुमारी ने लिखा है, जिसमें विषय की रिसर्च भी शामिल है।